आगामी उपन्यास की झलकियां – ५

अग्रवाल साहब भौतिक शास्त्र के विभागाध्यक्ष थे। कॉलेज में विभागाध्यक्ष की चवन्नी भी रूपये में चलती है। प्रयोगात्मक परीक्षा में फुल मार्क्स लेने हों तो उनसे ट्यूशन पढ़िए। इंटरनल या एक्सटर्नल एग्जामिनर जो भी हो, वो सेट कर लेंगे।

कड़कड़ाती ठंड और कुहरे में सुबह के साढ़े चार बजे 18-20 लड़कों का झुण्ड अग्रवाल साहब के घर की तरफ मुड़ने वाली सड़क के मुहाने पर खड़ा था। कुहरे का ये हाल था कि विजिबिलिटी मुश्किल से 100 मीटर रही होगी। कोई फुल स्वेटर में था तो कोई जैकेट में। किसी ने मंकी कैप लगाई हुई थी तो किसी मफलर से चेहरा तक ढक रखा था। सिर के आगे के बाल ऐसे भीगे हुए थे जैसे अभी नहाकर आये हों। लेकिन उत्तर भारत की जिस ठंड में मेरे जैसे लड़के अपने छात्र जीवन में उनतीस दिन तक न नहाते हों, वहां उन बेचारों से तीस दिन पहले नहाने की उम्मीद करना बेमानी है। सुबह 5 बजे तो उस मौसम में शायद पढ़ने के लिए भी उनमें से कोई कभी न उठा होगा।

तभी एक बोला,”शायद इनमें है।”

“पक्का” दूसरे ने पूछा।

सबने अपने दोनों हाथ रगड़कर गर्म किये। किसी ने बेल्ट खोलकर हाथ में ले ली, किसी ने शर्ट के अंदर छुपाई हुई रसायन विज्ञान की लैब से चुराई हुई स्टैंड की रॉड और किसी ने चैन। एक ने अपना एक जूता उतार लिया।

सबने एक दूसरे को इशारा किया।

साईकिल वाले लड़के नजदीक आ गए थे। सब टिड्ढी दल की तरह उन चारों साईकिल सवार लड़कों पर पिल पड़े।

सड़क सुनसान थी। तड़ातड़ थप्पड़ लात घूंसे, रॉड, चेन, बेल्ट, जूते बरस रहे थे। कहाँ ये 18-20 और कहाँ वो चार!

“हाय रे! मार डाला।”

“बचाओ, बचाओ, अरे कोई है?”

एक तो सिर्फ रोये ही जा रहा था। दहशत के मारे उसकी ज़बान से आवाज भी नहीं निकल रही थी।

“अरे भाई साहब! मेरी गलती तो बता दो” चौथा वाला बार बार यही सवाल दोहरा रहा था।

लेकिन मारने वाले चुपचाप लगे हुए थे। एक ने धीरे से पूछा,”अबे जान से मारोगे क्या? अधमरे हो लिए होंगे, छोडो, जाने दो।”

इस बार जब चौथे ने पूछा कि भाई साहब मेरी गलती क्या है, तो एक तमंचाधारी आगे बढ़ा।

“तेरी गलती मैं बताता हूँ।”

चारों को कॉलर पकड़कर एक जगह खड़ा किया और सब उनके चारों तरफ घेरा बनाकर खड़े हो गए।

“साले! तू ही था ना वो जिसने नीलम को अमरूद दिया था?” उसने तमंचा सटाते हुए पूछा।

“कौन नीलम? देखिये भाई साहब आपको जरूर कुछ गलतफहमी हुई है। मैं किसी नीलम को नहीं जानता।”

उसने नाल का दबाव बढ़ाया।

“अबे वो नीलम जिसे तूने स्टेट बैंक के सामने तीन लड़कियों के बीच में जाकर अमरूद दिया था।”

“मैंने तो मेरी गर्लफ्रेंड को दिया था।”

“वो पिंक सूट वाली तेरी गर्लफ्रेंड थी?”

“नहीं, वो ब्लू सूट वाली।”

“अबे तो नीलम को क्यों दिया था?”

“भाई साहब वो सब साथ में थीं तो सबको दे दिया था।”

“आगे से ऐसी गलती गलती से भी मत करियो। समझ गया?”

“समझ गया भाई साहब ….” इससे पहले कि वो कुछ और बोलता, धम्म से जमीन पर गिरा। जोर का धक्का लगने से सन्तुलन बिगड़ गया था।

उसने फिर उन तीनों को चमकाया। “अगर किसी ने भी किसी को भी कुछ बताया ना तो ये तमंचा और उसका सिर! क्या समझे?”

“जी” चारों ने एक साथ कहा।

इधर ये सब भागे और उधर वो अपनी साईकिल उठाने लगे।

आढ़ी – टेढ़ी, संकरी गलियों से होकर लगभग एक किलोमीटर दौड़कर वो रुके।

“तो आज नाश्ता कौन कराएगा?” एक ने पूछा।

“जो बुलाकर लाया था वो ही कराएगा।” दूसरा बोला।

“नहीं यार, इससे तो पार्टी लेंगे। चलो आज का नाश्ता छोटू के कमरे पर करेंगे। चांदनी भाभी के भी दर्शन हो जायेंगे” एक ने सुझाव दिया।

“क्या मस्त आईडिया है यार! भाभी की मुस्कान देखकर थकान भी दूर हो जायेगी” किसी ने चुटकी ली।

चांदनी भाभी छोटू की मकान मालकिन थीं। सुंदर तो थीं ही, स्वभाव से बड़ी हँसमुख थीं और इनमें से कई लड़कों से उनकी बातें भी खूब होती थीं जो छोटू के कमरे पर किसी न किसी बहाने आते-जाते रहते थे।

अलमस्त झुंड छोटू के कमरे की तरफ बढ़ चला। अभी सबके दिमाग में चांदनी भाभी की मुस्कान तैर रही थी और अब उन्हें बिल्कुल भी अहसास नहीं था कि वो क्या करके आ रहे थे!

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